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हु॒वे वः॑ सू॒नुं सह॑सो॒ युवा॑न॒मद्रो॑घवाचं म॒तिभि॒र्यवि॑ष्ठम्। य इन्व॑ति॒ द्रवि॑णानि॒ प्रचे॑ता वि॒श्ववा॑राणि पुरु॒वारो॑ अ॒ध्रुक् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

huve vaḥ sūnuṁ sahaso yuvānam adroghavācam matibhir yaviṣṭham | ya invati draviṇāni pracetā viśvavārāṇi puruvāro adhruk ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हु॒वे। वः॒। सू॒नुम्। सह॑सः। युवा॑नम्। अद्रो॑घऽवाचम्। म॒तिऽभिः॑। यवि॑ष्ठम्। यः। इन्व॑ति। द्रवि॑णानि। प्रऽचे॑ताः। वि॒श्वऽवा॑राणि। पु॒रु॒ऽवारः॑। अ॒ध्रुक् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:5» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले पाँचवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या ग्रहण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (प्रचेताः) उत्तम बुद्धियुक्त (पुरुवारः) बहुतों से स्वीकार किया गया (अध्रुक्) नहीं द्रोह करनेवाला जन (विश्ववाराणि) सम्पूर्ण जनों से स्वीकार करने योग्य (द्रविणानि) द्रव्यों को (इन्वति) व्याप्त होता है उस (मतिभिः) मनुष्यों वा बुद्धियों के सहित वर्त्तमान (सहसः) बल के (सूनुम्) सन्तान (युवानम्) युवावस्था को प्राप्त (अद्रोघवाचम्) द्रोहरहितवाणी जिसकी ऐसे (यविष्ठम्) अतिशय युवावस्था को प्राप्त हुए को (वः) आप लोगों के लिये मैं (हुवे) ग्रहण करता हूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोगों को चाहिये कि जो पक्षपात से रहित वादयुक्त, द्रोह से रहित और बुद्धिमानों के सङ्ग का सेवन करनेवाले और बहुत विद्वानों से आदर किये गये और और ब्रह्मचर्य्य से पूर्ण युवावस्थावाले विद्वान् हों, उन्हीं का उपदेश ग्रहण करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं ग्राह्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यः प्रचेताः पुरुवारोऽध्रुग् विश्ववाराणि द्रविणानीन्वति तं मतिभिः सह वर्त्तमानं सहसः सूनुं युवानमद्रोघवाचं यविष्ठं वो हुवे ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हुवे) आदद्मि (वः) युष्मभ्यम् (सूनुम्) अपत्यम् (सहसः) बलस्य (युवानम्) प्राप्तयौवनम् (अद्रोघवाचम्) अद्रोघा द्रोहरहिता वाग्यस्य तम् (मतिभिः) मनुष्यैः प्रज्ञाभिर्वा (यविष्ठम्) अतिशयेन युवानम् (यः) (इन्वति) व्याप्नोति (द्रविणानि) द्रव्याणि (प्रचेताः) प्रकृष्टं चेतः प्रज्ञा यस्य सः (विश्ववाराणि) विश्वैः सर्वैर्वरणीयानि (पुरुवारः) बहुभिर्वृतः स्वीकृतः (अध्रुक्) यो न द्रुह्यति ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! युष्माभिर्ये पक्षपातरहितवादा द्रोहरहिता बुद्धिमतां सङ्गसेविनो बहुभिर्विद्वद्भिः पूजिता ब्रह्मचर्य्येण पूर्णयुवावस्था विद्वांसः स्युस्तेषामेवोपदेशो ग्रहीतव्यः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जे भेदभावरहित, द्रोहरहित, बुद्धिमानाच्या संगतीचा स्वीकार करणारे, पुष्कळ विद्वानांकडून सन्मान केलेले, ब्रह्मचर्यपूर्वक युवावस्था प्राप्त केलेले विद्वान असतील तर त्यांचा उपदेश स्वीकारा. ॥ १ ॥